Category: धर्म-कर्म

  • कुंवारे लड़के इस मंदिर से चुरा ले जाते हैं माता पार्वती की मूर्ति को, साल में 1-2 महीने ही रह पाती हैं शिव जी के साथ

    कुंवारे लड़के इस मंदिर से चुरा ले जाते हैं माता पार्वती की मूर्ति को, साल में 1-2 महीने ही रह पाती हैं शिव जी के साथ

    माता पार्वती की मूर्ति चुराने का अजब कारण

    भारत में अनेक प्रकार की रीति रिवाज, परंपरा और मान्यताएं हैं। लेकिन राजस्थान में एक ऐसी मान्यता है कि जिसके बारे में जानकर आप हैरान रह जाएंगे। आज हम आपको एक ऐसी परंपरा के बारे में बताते हैं जिसमें शादी के लिए लोग मंदिर से मूर्ति की चोरी करते हैं। मान्यता है कि जिन लड़कों की शादी में कोई परेशानी आ रही है या फिर कुंडली दोष है तो वह मंदिर से माता पार्वती की मूर्ति चुरा ले जाए तो उसकी शादी हो जाती है।

    कमाल की बात तो यह है कि मूर्ति चोरी होने पर कोई पुलिस केस भी नहीं होता है। यूं तो शादी नहीं होने पर लोग भगवान और देवी-देवताओं की शरण में जाकर मन्नत मांगते हैं. लेकिन राजस्थान में एक ऐसा भी मंदिर है, जहां लोग इसके लिए मूर्ति चुराकर भागने का अनोखा तरीका अपनाते हैं. मान्यता है कि इस मंदिर से मूर्ति चुराते ही युवक की जल्द ही शादी हो जाती है. फिलहाल, सावन के आने पहले ही इस मंदिर में देवी की एक मूर्ति गायब है. स्थानीय लोगों का कहना है कि किसी कुंवारे ने मूर्ति को घर में छुपा रखा है.

    आइए जानते हैं इस मंदिर और परंपरा के बारे में..

    Shiv Parvati
    Shiv Parvati

    हो जाती है जल्द शादी

    यह अनोखा मंदिर राजस्थान के बूंदी जिले के हिंडोली कस्बे में स्थित है। यहां रामसागर झील किनारे रघुनाथ घाट मंदिर से अगर कोई कुंवारा लड़का माता पार्वती की मूर्ति चुरा ले जाए तो उसकी शादी जल्द हो जाती है।

    महीनों गायब रहती हैं माता पार्वती

    यही कारण है कि कुंवारे लड़के रात में चुपचाप मूर्ति उठा ले जाते हैं। इसी कारण शिव मंदिर में रहते हैं और माता पार्वती महीने भर तक गायब रहती हैं। सालभर में मुश्किल से एक महीने के लिए मूर्ति मंदिर में रहती है। मंदिर में महादेव (शिवलिंग) के बगल में ही पार्वतीजी की मूर्ति स्थापित है। पर महादेव जोड़े के साथ कम ही नजर आते हैं, क्योंकि कुंवारे पहले से ताक में रहते हैं। फिलहाल, सावन के पहले से पार्वतीजी महादेव से बिछुड़ी हुई हैं। वे किसी कुंवारे के घर होम क्वारैंटाइन में हैं।

    Shiv Parvati
    Shiv Parvati

    ऐसे में समय में भी ले गए मूर्ति

    आपको जानकर हैरानी होगी लॉकडाउन के समय में भी किसी ने मूर्ति को चुरा लिया है। कोरोना वायरस की वजह से लगे लॉकडाउन के चलते इस बार अक्षय तृतीया जैसे मुहूर्त पर भी शादियां नहीं हुईं। अगर लॉकडाउन नहीं टूटा तो शादियां भी नहीं होंगी और जुलाई से चार महीने के लिए देव सो जाएंगे।

    सालभर होती रहती है मूर्ति चोरीइस स्थिति में उम्मीद कम ही है कि महादेव के पास माता पार्वती वापस आ पाएंगी। स्थानिय पुजारी ने बताया है कि इस मंदिर में सालभर ऐसा होता रहता है। बहुत ही कम समय होता है कि मंदिर में शिव और पार्वती एकसाथ दर्शन देते हैं।

    Shiv Parvati
    Shiv Parvati

    नहीं होती पुलिस शिकायत

    पिछले 35 साल से मंदिर में पुजारी के रूप में सेवा दे रहे रामबाबू पाराशर बताते हैं कि अब तक 15-20 बार पार्वतीजी की मूर्ति चोरी हो चुकी है। चुराने वालों की शादियां भी हो चुकी हैं। हमें चोरी का पता चल भी जाता है तो भी किसी को टोकते नहीं। चुराई हुई मूर्ति महीनों तक छिपाकर रख देते हैं और संयोग यह है कि सभी चुराने वाले कुंवारों की शादियों भी हो चुकी हैं। साथ ही इस परंपरा के तहत कोई भी पुलिस से शिकायत दर्ज नहीं करता।

    Shiv Parvati
    Shiv Parvati

    इस बार करना पड़ सकता है इंतजार

    मंदिर में मूर्ति चुराने का कार्य अधिकतर रात के समय अंधेरे में किया जाता है। शादी के बाद जब मूर्ति वापस मंदिर में आ जाती है, उसके बाद कोई दुसरा कुंवारा लड़का मूर्ति को चुरा ले जाता है। कतार में लगे कुंवारों को इस बार लंबा इंतजार करना पड़ सकता है।”

     

    Source: https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/photo/unmarried-boys-steal-the-murti-of-mata-parvati-from-this-temple-78508/6/

  • जगन्नाथ मंदिर 25 जुलाई को जनता के लिए खुलेगा

    जगन्नाथ मंदिर 25 जुलाई को जनता के लिए खुलेगा

    पुरी, 16 जून (भाषा) पुरी का प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर 25 जुलाई को जनता के लिए खुलेगा। यह जानकारी प्राधिकारियों ने बुधवार को दी।

    मुख्य प्रशासक कृष्ण कुमार ने कहा कि यह निर्णय श्री जगन्नाथ मंदिर प्रशासन (एसजेटीए) की बैठक में लिया गया। उन्होंने कहा कि मंदिर 15 जून तक भक्तों के लिए बंद था, जिसे 25 जुलाई तक बढ़ा दिया गया।

    रथ यात्रा उत्सव पूरा होने के दो दिन बाद मंदिर जनता के लिए खुलेगा।

    भगवान बलभद्र, देवी सुभद्रा और भगवान जगन्नाथ 23 जुलाई को नौ दिवसीय रथयात्रा उत्सव के बाद मंदिर लौटेंगे।

    उन्होंने कहा, ‘‘भक्तों को दो दिन बाद मंदिर में प्रवेश करने का अवसर मिलेगा।’’

    कुमार ने कहा कि हालांकि, एसजेटीए 24 या 25 जुलाई को फिर से बैठक करेगा और मौजूदा स्थिति के आधार पर जनता को अनुमति देने पर फैसला करेगा।

    24 जून को स्नान यात्रा (स्नान उत्सव) और 12 जुलाई को रथ यात्रा राज्य सरकार के निर्णय के अनुसार भक्तों के बिना, कोविड-19 दिशानिर्देशों के पालन के साथ आयोजित की जाएगी।

    कुमार ने कहा कि रथ यात्रा सुरक्षा कर्मियों की मौजूदगी में सेवादारों की भागीदारी से होगी।

    उन्होंने कहा कि उत्सव में भाग लेने वाले सेवकों को टीकाकरण की दोनों खुराकों का प्रमाण पत्र या कोविड निगेटिव रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी।

    जिलाधिकारी समर्थ वर्मा ने कहा कि त्योहार के दौरान पुरी में निषेधाज्ञा लागू की जाएगी।

    एसजेटीए ने एक अलग बैठक में जगन्नाथ मंदिर में आठ दरवाजों पर चांदी की परत चढ़ाने के लिए दो समितियों का गठन करने का भी निर्णय लिया। उनमें से एक तकनीकी समिति होगी और दूसरी सेवादारों का प्रतिनिधित्व करेगी।

     

    कुमार ने कहा कि एक दानदाता चांदी प्रदान करेगा। कुमार ने कहा कि लगभग दो टन धातु का उपयोग होने की संभावना है।

    पीटीआई-भाषा संवाददाता

    डिसक्लेमर: यह आर्टिकल भाषा पीटीआई न्यूज फीड से सीधे प्रकाशित किया गया है.

  • कैसे हुई थी राधा की मृत्यु, श्रीकृष्ण ने क्यों तोड़ दी थी बांसुरी?

    कैसे हुई थी राधा की मृत्यु, श्रीकृष्ण ने क्यों तोड़ दी थी बांसुरी?

    जब भी प्रेम की मिसाल दी जाती है तो श्रीकृष्ण-राधा के प्रेम की मिसाल सबसे पहले आती है. राधा-श्रीकृष्ण के प्रेम को जीवात्मा और परमात्मा का मिलन कहा जाता है. राधा श्रीकृष्ण का बचपन का प्यार थीं. श्रीकृष्ण जब 8 साल के थे तब दोनों ने प्रेम की अनुभूति की. राधा श्रीकृष्ण के दैवीय गुणों से परिचित थीं. उन्होंने जिंदगी भर अपने मन में प्रेम की स्मृतियों को बनाए रखा. यही उनके रिश्ते की सबसे बड़ी खूबसूरती है.

     

    कहा जाता है कि श्रीकृष्ण को केवल दो ही चीजें सबसे ज्यादा प्रिय थीं. ये दोनों चीजें भी आपस में एक-दूसरे से गहराई से जुड़ी हुई थीं- बांसुरी और राधा.

    How Radha Died and Why Krishna Broken his Flute

    कृष्ण की बांसुरी की धुन ही थी जिससे राधा श्रीकृष्ण की तरफ खिंची चली गईं. राधा की वजह से श्रीकृष्ण बांसुरी को हमेशा अपने पास ही रखते थे.

     

    भले ही श्रीकृष्ण और राधा का मिलन नहीं हो सका लेकिन उनकी बांसुरी उन्हें हमेशा एक सूत्र में बांधे रही.

    How Radha Died and Why Krishna Broken his Flute

    श्रीकृष्ण के जितने भी चित्रण मिलते हैं, उनमें बांसुरी जरूर रहती है. बांसुरी श्रीकृष्ण के राधा के प्रति प्रेम का प्रतीक है. वैसे तो राधा से जुड़ीं कई अलग-अलग विवरण मौजूद हैं लेकिन एक प्रचलित कहानी नीचे दी गई है.

     

    भगवान श्रीकृष्ण से राधा पहली बार तब अलग हुईं जब मामा कंस ने बलराम और कृष्ण को आमंत्रित किया. वृंदावन के लोग यह खबर सुनकर दुखी हो गए.

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    मथुरा जाने से पहले श्रीकृष्ण राधा से मिले थे. राधा, कृष्ण के मन में चल रही हर गतिविधि को जानती थीं. राधा को अलविदा कह कृष्ण उनसे दूर चले गए.

     

    कृष्ण राधा से ये वादा करके गए थे कि वो वापस आएंगे. लेकिन कृष्ण राधा के पास वापस नहीं आए. उनकी शादी भी रुक्मिनी से हुई. रुक्मिनी ने भी श्रीकृष्ण को पाने के लिए बहुत जतन किए थे. श्रीकृष्ण से विवाह के लिए वह अपने भाई रुकमी के खिलाफ चली गईं. राधा की तरह वह भी श्रीकृष्ण से प्यार करती थीं, रुक्मिनी ने श्रीकृष्ण को एक प्रेम पत्र भी भेजा था कि वह आकर उन्हें अपने साथ ले जाएं. इसके बाद ही कृष्ण रुक्मिनी के पास गए और उनसे शादी कर ली.

    How Radha Died and Why Krishna Broken his Flute

    कृष्ण के वृंदावन छोड़ने के बाद से ही राधा का वर्णन बहुत कम हो गया. राधा और कृष्ण जब आखिरी बार मिले थे तो राधा ने कृष्ण से कहा था कि भले ही वो उनसे दूर जा रहे हैं, लेकिन मन से कृष्ण हमेशा उनके साथ ही रहेंगे. इसके बाद कृष्ण मथुरा गए और कंस और बाकी राक्षसों को मारने का अपना काम पूरा किया. इसके बाद प्रजा की रक्षा के लिए कृष्ण द्वारका चले गए और द्वारकाधीश के नाम से लोकप्रिय हुए.

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    जब कृष्ण वृंदावन से निकल गए तब राधा की जिंदगी ने अलग ही मोड़ ले लिया था. राधा की शादी एक यादव से हो गई. राधा ने अपने दांपत्य जीवन की सारी रस्में निभाईं और बूढ़ी हुईं, लेकिन उनका मन तब भी कृष्ण के लिए समर्पित था.

     

    राधा ने पत्नी के तौर पर अपने सारे कर्तव्य पूरे किए. दूसरी तरफ श्रीकृष्ण ने अपने दैवीय कर्तव्य निभाए.

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    सारे कर्तव्यों से मुक्त होने के बाद राधा आखिरी बार अपने प्रियतम कृष्ण से मिलने गईं. जब वह द्वारका पहुंचीं तो उन्होंने कृष्ण की रुक्मिनी और सत्यभामा से विवाह के बारे में सुना लेकिन वह दुखी नहीं हुईं.

     

    जब कृष्ण ने राधा को देखा तो बहुत प्रसन्न हुए. दोनों संकेतों की भाषा में एक दूसरे से काफी देर तक बातें करते रहे. राधा जी को कान्हा की नगरी द्वारिका में कोई नहीं पहचानता था. राधा के अनुरोध पर कृष्ण ने उन्हें महल में एक देविका के रूप में नियुक्त किया.

    How Radha Died and Why Krishna Broken his Flute

    राधा दिन भर महल में रहती थीं और महल से जुड़े कार्य देखती थीं. मौका मिलते ही वह कृष्ण के दर्शन कर लेती थीं. लेकिन महल में राधा ने श्रीकृष्ण के साथ पहले की तरह का आध्यात्मिक जुड़ाव महसूस नहीं कर पा रही थीं इसलिए राधा ने महल से दूर जाना तय किया. उन्होंने सोचा कि वह दूर जाकर दोबारा श्रीकृष्ण के साथ गहरा आत्मीय संबंध स्थापित कर पाएंगी.

    How Radha Died and Why Krishna Broken his Flute

    उन्हें नहीं पता था कि वह कहां जा रही हैं, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण जानते थे. धीरे-धीरे समय बीता और राधा बिलकुल अकेली और कमजोर हो गईं. उस वक्त उन्हें भगवान श्रीकृष्ण की आवश्यकता पड़ी. आखिरी समय में भगवान श्रीकृष्ण उनके सामने आ गए.

     

    कृष्ण ने राधा से कहा कि वह उनसे कुछ मांगें, लेकिन राधा ने मना कर दिया. कृष्ण के दोबारा अनुरोध करने पर राधा ने कहा कि वह आखिरी बार उन्हें बांसुरी बजाते देखना चाहती हैं. श्रीकृष्ण ने बांसुरी ली और बेहद सुरीली धुन में बजाने लगे.

    How Radha Died and Why Krishna Broken his Flute

    श्रीकृष्ण ने दिन-रात बांसुरी बजाई, जब तक राधा आध्यात्मिक रूप से कृष्ण में विलीन नहीं हो गईं. बांसुरी की धुन सुनते-सुनते राधा ने अपने शरीर का त्याग कर दिया.

     

    हालांकि भगवान कृष्ण जानते थे कि उनका प्रेम अमर है, बावजूद वे राधा की मृत्यु को बर्दाश्त नहीं कर सके. कृष्ण ने प्रेम के प्रतीकात्मक अंत के रूप में बांसुरी तोड़कर झाड़ी में फेंक दी. उसके बाद से श्री कृष्ण ने जीवन भर बांसुरी या कोई अन्य वादक यंत्र नहीं बजाया.

    How Radha Died and Why Krishna Broken his Flute

    कहा जाता है कि जब द्वापर युग में नारायण ने श्री कृष्ण का जन्म लिया था, तब मां लक्ष्मी ने राधा रानी के रूप में जन्म लिया था ताकि मृत्यु लोक में भी वे उनके साथ ही रहे.

     

    Source: Shri Krishna and Radha

    Image Credit: https://pixabay.com www.gallerist.in www.bonobology.com isha.sadhguru.org www.indiahallabol.com medium.com www.gameoftrendz.com

  • कैलास मानसरोवर के इन 7 रहस्यों को कोई जान नहीं पाया, कौन बजाता है यहां मृदंग

    कैलास मानसरोवर के इन 7 रहस्यों को कोई जान नहीं पाया, कौन बजाता है यहां मृदंग

    दुनिया के सबसे ऊंचे शिवधाम कैलास मानसरोवर (Kailash Mansarovar) की यात्रा इन दिनों कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कर रहे हैं और इन्होंने अपनी इस यात्रा को लेकर ट्वीट किया है और बताया है कि कैलास आने का सौभाग्य उसे ही मिलता है जिसे कैलास बुलाते हैं। राहुल गांधी ने यहां स्थित मानसरोवर झील के बारे में लिखा है कि; मानसरोवर झील का पानी बेहद शांत, स्थिर और कोमल है। यह झील सबकुछ देती है और कुछ नहीं लेती। इसे कोई भी ग्रहण कर सकता है। यहां कोई घृणा नहीं है। इसलिए भारत में इस जल को पूजा जाता है। आइए जानें पुराणों में कैलास मानसरोवर झील के बारे में क्या कहा गया है और क्यों लोग जान जोखिम में डालकर यहां यात्रा करने आते हैं।

    Kailash Mansarovar Yatra

    पर्वतारोहियों ने दुनिया की सबसे ऊंची छोटी, माउन्ट एवरेस्ट को फतह कर लिया लेकिन आज तक कोई भी पर्वतारोही कैलाश पर्वत पर नहीं चढ़ सका है। ऐसी बहुत सी अनोखी बाते हैं कैलाश के बारे में:

     

    मृदंग की आती है आवाजें:

    Kailash Mansarovar Yatra

    कहा जाता है कि गर्मी के दिनों में जब मानसरोवर की बर्फ पिघलती है तो एक प्रकार की आवाज लगातार सुनाई देती है। श्रद्धालुओं का मानना है कि यह आवाज मृदंग की ध्वनि जैसी होती है। मान्यता यह भी है कि कोई व्यक्ति मानसरोवर में एक बार डुबकी लगा ले तो वह ‘रुद्रलोक’ को प्राप्त होता है।

     

    शक्तिपीठ के होते हैं दर्शन:

    Kailash Mansarovar Yatra

    इस स्थान की गिनती देवी के 51 शक्ति पीठों में भी होती है। माना जाता है कि देवी सती का दांया हाथ इसी स्थान पर गिरा था, जिससे यह झील तैयार हुई। इसलिए यहां एक पाषाण शिला को उसका रूप मानकर पूजा जाता है।

    Kailash Mansarovar Yatra

    ॐ की आवाज देती है सुनाई:

     

    मान्यता है कि मानसरोवर झील और राक्षस झील, ये दोनों झीलें सौर और चंद्र बल को प्रदर्शित करती हैं, जिसका संबंध सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा से है। जब आप इन्हें दक्षिण की तरफ से देखेंगे तो एक स्वास्तिक चिह्न बना हुआ दिखेगा। इस अलौकिक जगह पर प्रकाश तरंगों और ध्वनि तरंगों का समागम होता है, जो ‘ॐ’ जैसा सुनाई देता है।

    Kailash Mansarovar Yatra

    इसे महसूस कर सकते हैं:

     

    आपमानसरोवर में बहुत-सी खास बातें आपके आसपास होती रहती हैं, जिन्हें आप केवल महसूस कर सकते हैं। झील लगभग 320 किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई है। इस झील के आस-पास सुबह के 2:30 से 3:45 बजे के बीच कई तरह की अलौकिक क्रियाओं को केवल महसूस किया जा सकता है, देखा नहीं जा सकता।

    Kailash Mansarovar Yatra

    गंगा में जाता है इसका पानी:

    Kailash Mansarovar Yatra

    मान्यता है कि इस सरोवर का जल आंतरिक स्रोतों के माध्यम से गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी में जाता है। पुराणों के अनुसार, शंकर भगवान द्वारा प्रकट किए गए जल के वेग से जो झील बनी, उसी का नाम मानसरोवर हुआ था।

    Kailash Mansarovar Yatra

    क्षीर सागर से है इसका संबंध:

    Kailash Mansarovar Yatra

    मानसरोवर पहाड़ों से आते हुए रास्ते में एक झील है, पुराणों में इस झील का जिक्र ‘क्षीर सागर’ से किया गया है। क्षीर सागर कैलाश से 40 किमी की दूरी पर है। धार्मिक आस्था है कि विष्णु और माता लक्ष्मी इसी में शेष शैय्या पर विराजते हैं।

     

    Source: https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/dharam-karam/religion-and-spiritualism/kailash-mansarovar-start-from-june-8-know-7-interesting-fact-of-mansarovar-yatra-30288/6/

  • भारत के 8 बेजोड़ गुरु, ऐसे चेले बनाए दुनिया हमेशा रखेगी याद

    भारत के 8 बेजोड़ गुरु, ऐसे चेले बनाए दुनिया हमेशा रखेगी याद

    भारतीय परंपरा में गुरु को गोविंद से बढ़कर आदर दिया गया है। इसकी वजह यह है कि गुरु अपने शिष्यों को सांचे में ढालकर एक ऐसा मनुष्य तैयार करने की क्षमता रखता है जो ईश्वर की बनाई सृष्टि को नई दिशा दे सकता है और अपनी अमर कीर्ति से इतिहास के पन्नों में अपना नाम अंकित कर सकता है। शिक्षक दिवस के अवसर पर हम आपको ऐसे ही कुछ गुरुओं की याद दिलाते हैं जिनके शिष्यों के नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं।

    शिव:

     

    सृष्टि में सबसे पहले गुरु भगवान शिव ही माने जाते हैं। इन्होंने पूरी दुनिया को नृत्य, व्याकरण और संगीत का ज्ञान दिया। इनके प्रमुख शिष्यों में शनि महाराज, परशुरामजी का नाम आता है। शनि महाराज नवग्रहों में दंडाधिकारी हैं और इनके न्याय से भगवान शिव भी नहीं बच पाए हैं। परशुरामजी ने भगवान शिव से ज्ञान प्राप्त करके गुरु शिष्य परंपरा को आगे चलाया। इनके कई शिष्यों के नाम इतिहास में अंकित हैं।

    वशिष्ठः

     

    भगवान राम ने अपने तीनों भाईयों के साथ इनसे ज्ञान प्राप्त किया था। इन्होंने भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम और अन्य भाईयों को धर्म की राह पर चलना सिखाया था।

    संदीपिनीः

     

    दुनिया को गीता का ज्ञान देने वाले भगवान श्रीकृष्ण को इन्होंने ज्ञान दिया था। इन्हीं के आश्रम में सुदामाजी और श्रीकृष्ण ने शिक्षा पाई थी। इन्ही के आश्रम में श्रीकृष्ण को परशुरामजी से सुदर्शन चक्र प्राप्त हुआ था।

    परशुरामः

     

    गुरु परंपरा में परशुरामजी का नाम बहुत ही आदर से लिया जाता है। इनके शिष्यों में ऐसे महायोद्धा हुए जिनसे देवता भी भयभीत रहते थे। महाभारत के महायुद्ध में इनके तीन शिष्यों भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण ने भाग लिया था। ये तीनों ही कौरवों के प्रधान सेनापति हुए और छल द्वारा युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।

    द्रोणाचार्यः

     

    महाभारत की कथा इनके बिना अधूरी है। इन्होंने परशुरामजी से प्राप्त ज्ञान को गुरु परंपरा के तहत आगे बढ़ाया। इनके प्रमुख शिष्यों में कौरव, पांडव और अश्वत्थामा का नाम आता है। अर्जुन इनका प्रिय शिष्य था।

    श्रीकृष्णः

     

    महाभारत का एक महायोद्धा जिसने महज 16 साल की उम्र में अकेले ही पूरी कौरव सेना के महायोद्धाओं से युद्ध किया और अपनी वीरता से सभी को हैरान कर दिया उस वीर का नाम अभिमन्यु था। इस योद्धा के गुरु इनके मामा भगवान श्रीकृष्ण थे। महाभारत के महायुद्ध का परिणाम कुछ और होता अगर यह योद्धा उस युद्ध में नहीं होता।चक्रव्यूह को तोड़ना अर्जुन, श्रीकृष्ण और अभिमन्यु के अलावा किसी और को नहीं आता था। द्रोणाचार्य चक्रव्यूह में फंसाकर युधिष्ठिर को बंदी बना लेना चाहते थे लेकिन अभिमन्यु ने द्रोणाचार्य की चाल को नाकाम बना दिया। जब अकेले इन्हें कोई परास्त नहीं कर पा रहा था तब सभी ने एक साथ मिलकर इन पर वार करना शुरू कर दिया और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ।

    गोविंद भगवत्पाद:

     

    आदिगुरु शंकराचार्य जिन्होंने चार धामों की स्थापना की उनके गुरु गोविंद भगवत्पादजी थे। शंकराचार्यजी ने इनसे ज्ञान प्राप्त करके अद्वैत सिद्धांत का प्रचार किया और अपने समकालीन सभी विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। वेदांतसूत्रों और उपनिषदों पर इनकी टिकाएं काफी प्रसिद्ध हैं।

    रामकृष्ण परमहंस:

     

    आधुनिक युग के प्रमुख संतों और दार्शनिकों में एक नाम आता है स्वामी विवेकानंदजी का जिन्होंने अपने सिद्धांत और ज्ञान से पूरी दुनिया में भारत का नाम रोशन कर दिखाया था। इनके गुरु थे रामकृष्ण परमहंस। इनके सानिध्य और ज्ञान से विवेकानंद जगत प्रसिद्ध हुए।

     

    Source: https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/photo/teachers-day-special-teachers-in-mythology-47168/8/

  • अब चार धाम यात्रा ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन उत्तराखंड टूरिज़्म के मोबाइल एप्प पर उपलब्ध है

    अब चार धाम यात्रा ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन उत्तराखंड टूरिज़्म के मोबाइल एप्प पर उपलब्ध है

    जैसा की आप जानते है की चारधाम यात्रा 18 अप्रैल से शुरू हो चुकी है. यमुनोत्री और गंगोत्री धाम के कपाट 18 अप्रैल को खुल गए हैं. जबकि केदारनाथ धाम के कपाट 29 अप्रैल और बद्रीनाथ धाम के कपाट 30 अप्रैल को खुल जाएंगे.

    हिन्दू धर्म में चार धाम यात्रा का बहुत ही महत्त्व है यही कारण है चार धाम यात्रा में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ होती है. भारी भीड़ के कारण रजिस्ट्रेशन काउंटर पर लम्बी लम्बी कतारें लग जाती है और काफी समय यात्रा रजिस्ट्रेशन कराने में ही खर्च हो जाता है.

    चारधाम आने वाले यात्रियों की इस असुविधा को देखते हुए उत्तराखंड पर्यटन मंत्रालय और गढ़वाल मंडल विकास निगम ने अपने एप्प “एक्स्प्लोर आउटिंग (Explore Outing)” में ऑनलाइन रेजिस्ट्रेशन की सुविधा आरम्भ कर दी है.

    आप इस एप्प को उत्तराखंड टूरिज्म की वेबसाइट (http://uttarakhandtourism.gov.in/ > For Travelers > Explore Outing Mobile App) पर क्लिक करके डाउनलोड कर सकते हैं या फिर सीधे Google Play Store में Explore Outing सर्च करके अपने फ़ोन में इनस्टॉल कर सकते हैं.

    Char Dham Yatra Online Registration

    इनस्टॉल करने के बाद चार धाम यात्रा रजिस्ट्रेशन ( Char Dham Registration )में सभी मेम्बर्स की डिटेल्स भरें और फ़ोन कैमरा से फोटो खींच कर रजिस्ट्रेशन कर सकते हैं.

    चार धाम यात्रा की अधिक जानकारी के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें:

    केदारनाथ धाम यात्रा 2018

    बद्रीनाथ धाम यात्रा 2018

    गंगोत्री धाम यात्रा 2018

    यमुनोत्री धाम यात्रा 2018

  • श्री गणेश जी के वॉलपेपर डाउनलोड करे फ्री में

    श्री गणेश जी के वॉलपेपर डाउनलोड करे फ्री में

    श्री गणेशाय नमः

    श्री गणेश जी (Shri Ganesh Ji) हिन्दू धर्म के मुख्य देवता हैं. कोई भी शुभ कार्य करने से पहले श्री गणेश जी की पूजा की जाती है इसलिए उन्हें प्रथम पूज्य भी कहा जाता है. श्री गणेश जी भगवन शंकर और माता पार्वती के पुत्र हैं. उनका वाहन डिंक नाम का चूहा है. हाथी जैसा सिर होने के कारण उन्हें गजानन भी कहा जाता है.

    Hindu God Ganesha Free Wallpapers

    श्री गणेश जी का परिवार

    श्री गणेश जी के दो विवाह हुए थे, उनकी पत्नियों के नाम रिद्धि और सिद्धि हैं. गणेश जी के दो पुत्र भी हुए जो शुभ और लाभ कहलाते हैं. गणेश जी के बड़े भाई का नाम कार्तिकेय और बहन का नाम अशोकसुन्दरी है.

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    गणेश चतुर्थी

    श्री गणेश जी का जन्म भद्रपद मास के शुक्ल पक्ष के चतुर्थी के दिन माना जाता है. हर साल उनके जन्म की तिथि पर गणेशोत्सव का पर्व मनाया जाता है। जो 10 दिनों तक चलता है.

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    Shri Ganesh Wallpaper

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    अगर आपको गणेश जी के ये वॉलपेपर अच्छे लगे हों तो इसे फेसबुक आदि पर शेयर जरूर करें.

  • दुनिया के महान धनुर्धर एकलव्य को किसने मारा और क्यों?

    दुनिया के महान धनुर्धर एकलव्य को किसने मारा और क्यों?

    महान योद्धा

    एक महान योद्धा और पारंगत धर्नुधर होने के बावजूद, भीलपुत्र एकलव्य महाभारत का एक भूला-बिसरा अध्याय बनकर रह गया। महाभारत की गाथा बेहद व्यापक है। अनेक घटनाएं और पात्रों की वजह से बहुत से ऐसे चरित्र भी हैं, इतिहास ने जिन्हें नजरअंदाज कर दिया है। इन्हीं चरित्रों में से एक है एकलव्य। एकलव्य की कहानी बेहद मार्मिक है, महाभारत की कहानी में जिन्हें सदाचारी और हमेशा धर्म की राह पर चलने वाला दिखाया गया है, दरअसल एकलव्य के जीवन में वही लोग सबसे अधिक क्रूर साबित हुए।

    who-killed-eklavya-and-why
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    महाभारत के नायक

    द्रोणाचार्य के महान शिष्य महाभारत की कहानी के नायक रहे अर्जुन को सबसे बेहतरीन और अचूक धनुर्धर माना जाता है। लेकिन एकलव्य के सामने अर्जुन के तीर भी अपना निशाना नहीं पहचान पाते थे। एकलव्य की यही काबीलियत उसके लिए सबसे बड़ी दुश्मन साबित हुई।

     

    जीवनगाथा

    एकलव्य की जीवन गाथा पर गौर करें तो वह बेहद मार्मिक है। वह एक भीलपुत्र था और जंगल में अपने पिता के साथ रहता था। उसके पिता हिरण्यधनु उसे यही सीख देते थे कि उसे अपने जीवन में आगे बढ़ना चाहिए।

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    शिकारी का बेटा

    शिकारी का बेटा होने की वजह से एकलव्य को धनुष-बाण से बहुत प्रेम था। बचपन से ही वह एक बेहतरीन धनुर्धर बनने का ख्वाब देखता था। एक दिन बालक एकलव्य बांस के बने धनुष पर बांस का ही तीर चढ़ाकर निशाना लगा रहा था कि पुलक मुनि की नजर उस पर पड़ी।

     

    पुलक मुनि का आगमन

    पुलक मुनि एकलव्य का आत्मविश्वास देखकर भौचक्के रह गए और एकलव्य से कहा कि वह उन्हें अपने पिता के पास ले चले। मुनि की बात मानकर एकलव्य उन्हें अपने पिता के पास ले आया। पुलक मुनि ने हिरण्यधनु से कहा कि उनका पुत्र बेहतरीन धनुर्धर बनने के काबिल है, इसे सही दीक्षा दिलवाने का प्रयास करना चाहिए।

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    महान धनुर्धर

    पुलक मुनि की बात से प्रभावित होकर भील राजा हिरण्यधनु, अपने पुत्र एकलव्य को द्रोण जैसे महान गुरु के पास ले गया। हिरण्यधनु ने जब द्रोण को अपना परिचय दिया कि वह एक भील है और अपने पुत्र को धनुर्धर बनाना चाहता है तो उसकी बात सुनकर द्रोणाचार्य बहुत हंसे।

     

    अपमान

    द्रोण ने हिरण्यधनु से कहा कि उनका काम केवल शिकार के लायक धनुष विद्या सीखना है, युद्ध में शत्रुओं को मारना उनका काम नहीं। वैसे भी द्रोण, भीष्म पितामह को दिए गए अपने वचन के लिए प्रतिबद्ध थे कि वह केवल कौरव वंश के राजकुमारों को ही अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देंगे।

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    सेवक के तौर पर रहना

    द्रोण की ओर से अपमानित होकर हिरण्यधनु तो वापिस जंगल लौट आए लेकिन एकलव्य को द्रोण के सेवक के तौर पर उन्हीं के पास छोड़ आए। द्रोण की ओर से दीक्षा देने की बात नकार देने के बावजूद एकलव्य ने हिम्मत नहीं हारी, वह सेवकों की भांति उनके साथ रहने लगा।

     

    सेवक बना एकलव्य

    द्रोणाचार्य ने एकलव्या को रहने के लिए एक झोपड़ी दिलवा दी। एकलव्य का काम बस इतना होता था कि जब सभी राजकुमार बाण विद्या का अभ्यास कर चले जाएं तब वह सभी बाणों को उठाकर वापस तर्कश में डालकर रख दे।

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    कबीले का राजकुमार

    जब द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को अस्त्र चलाना सिखाते थे तब एकलव्य भी वहीं छिपकर द्रोण की हर बात, हर सीख को सुनता था। अपने कबीले का राजकुमार होने के बावजूद एकलव्य द्रोण के पास एक सेवक बनकर रह रहा था।

     

    एकलव्य को मिला अवसर

    एक दिन अभ्यास जल्दी समाप्त हो जाने के कारण सभी राजकुमार समय से पहले ही लौट गए। ऐसे में एकलव्य को धनुष चलाने का एक अदद मौका मिल गया। लेकिन अफसोस उनके अचूक निशाने को दुर्योधन ने देख लिया और द्रोणाचार्य को इस बात की जानकारी दी।

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    हताश हुआ एकलव्य

    द्रोणाचार्य ने एकलव्य को वहां से चले जाने को कहा। हताश-निराश एकलव्य घर की ओर रुख कर गया, लेकिन रास्ते में उसने सोचा कि वह घर जाकर क्या करेगा, इसलिए बीच में ही एक आदिवासी बस्ती में ठहर गया। उसने आदिवासी सरदार को अपना परिचय दिया और कहा कि वह यहां रहकर धनुष विद्या का अभ्यास करना चाहता है। सरदार ने प्रसन्नतापूर्वक एकलव्य को अनुमति दे दी।

     

    मिट्टी की प्रतिमा

    एकलव्य ने जंगल में रहते हुए गुरु द्रोण की एक मिट्टी की प्रतिमा बनाई और उसी के सामने धनुष-बाण का अभ्यास करने लगा।

     

    अर्जुन को वचन

    समय बीतता गया और कौरव वंश के अन्य बालकों, कौरव और पांडवों के साथ-साथ एकलव्य भी युवा हो गया। द्रोणाचार्य ने बचपन में ही अर्जुन को यह वचन दिया था कि उससे बेहतर धनुर्धर इस ब्रह्मांड में दूसरा नहीं होगा। लेकिन एक दिन द्रोण और अर्जुन, दोनों की ही यह गलतफहमी दूर हो गई, जब उन्होंने एकलव्य को धनुष चलाते हुए देखा।

     

    एकाग्रता हुई भंग

    एक दिन की बात है, एकलव्य अभ्यास कर रहा था और एक कुत्ता, बार-बार भोंककर उसकी एकाग्रता को भंग करता जा रहा था। एकलव्य ने अपने तीरों से कुत्ते का मुंह कुछ ऐसे बंद किया कि रक्त की बूंद भी उसके शरीर से नहीं बही।

     

    राजकुमारों का कुत्ता

    यह कुत्ता कोई साधारण कुत्ता नहीं बल्कि पांडवों और कौरवों के साथ द्रोण के आश्रम में रहने वाला कुत्ता था। जब वह कुत्ता वापस आश्रम गया तो द्रोण यह देखकर हैरान रह गए कि कितनी सफाई से उस कुत्ते के मुंह को तीरों से बंद किया गया है।

     

    सैनिकों के साथ पहुंचे द्रोण

    कुछ ही देर बीती होगी कि द्रोणाचार्य, अर्जुन, युधिष्ठिर और दुर्योधन समेत, कई सैनिक भी एकलव्य के पास आ पहुंचे। एकलव्य ने जैसे ही द्रोणाचार्य को अपने समक्ष देखा, उन्हें प्रणाम करने के लिए पहुंच गया।

     

    कुत्ते को कष्ट

    गुरु द्रोण ने क्रोधित होकर पूछा कि किसने राजकुमार के कुत्ते को इतना कष्ट पहुंचाया है? इस सवाल के जवाब में एकलव्य ने कहा कि इस कुत्ते को जरा भी कष्ट नहीं हुआ क्योंकि इसका मुंह मैंने आपके द्वारा सिखाए गए तरीके से बंद किया है।

     

    बेहतर धनुर्धर

    गुरु द्रोण पहले तो आश्चर्यचकित हुए लेकिन बाद में अपनी मिट्टी की मूर्ति देखकर एकलव्य को पहचान गए। अर्जुन, अपने गुरु द्रोण को ऐसे देखने लगा जैसे उन पर हंस रहा हो, क्योंकि उससे बेहतर धनुर्धर आज उसके सामने खड़ा था।

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    एकलव्य की प्रतिभा

    एकलव्य की प्रतिभा को देखकर द्रोणाचार्य संकट में पड़ गए। लेकिन अचानक उन्हें एक युक्ति सूझी। उन्होंने एकलव्य से गुरुदक्षिणा में उसके दाएं हाथ का अंगूठा ही मांग लिया ताकि एकलव्य कभी धनुष चला ना पाए।

     

    आज्ञाकारी शिष्य

    एक आदर्श और आज्ञाकारी शिष्य की तरह एकलव्य ने अपनी आंखों में आंसू भरकर, बिना सोचे-समझे अपने गुरु को अपना अंगूठा दे दिया।

     

    विष्णु पुराण

    विष्णु पुराण और हरिवंशपुराण में उल्लिखित है कि निषाद वंश का राजा बनने के बाद एकलव्य ने जरासंध की सेना की तरफ से मथुरा पर आक्रमण कर यादव सेना का लगभग सफाया कर दिया था। यादव वंश में हाहाकर मचने के बाद जब कृष्ण ने दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को देखा तो उन्हें इस दृश्य पर विश्वास ही नहीं हुआ।

     

    वीरगति को प्राप्त हुआ एकलव्य

    एकलव्य अकेले ही सैकड़ों यादव वंशी योद्धाओं को रोकने में सक्षम था। इसी युद्ध में एकलव्य, कृष्ण के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ था। उसका पुत्र केतुमान भीम के हाथ से मारा गया था।

     

    कृष्ण का अर्जुन प्रेम

    जब युद्ध के बाद सभी पांडव अपनी वीरता का बखान कर रहे थे तब कृष्ण ने अपने अर्जुन प्रेम की बात कबूली थी।

     

    कृष्ण का कथन

    कृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट कहा था कि “तुम्हारे प्रेम में मैंने क्या-क्या नहीं किया है। तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाओ इसके लिए मैंने द्रोणाचार्य का वध करवाया, महापराक्रमी कर्ण को कमजोर किया और न चाहते हुए भी तुम्हारी जानकारी के बिना भील पुत्र एकलव्य को भी वीरगति दी ताकि तुम्हारे रास्ते में कोई बाधा ना आए”।

     

    Source: https://hindi.speakingtree.in/allslides/why-krishna-killed-eklavya/269833

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  • श्री कृष्ण और कर्ण संवाद – जीवन का सार

    श्री कृष्ण और कर्ण संवाद – जीवन का सार

    महाभारत के बारे में कौन नहीं जानता, यह युद्ध धर्म की रक्षा हेतु पांडवों और कौरवों के बीच लड़ा गया. कुरुक्षेत्र में लड़ा गया यह धर्म युद्ध असीम जन-धन हानि के लिए विख्यात है साथ ही इस युद्ध से गीता जैसा  महाग्रन्थ मिला जो जीवन के गूढ़ रहस्यों से हमें अवगत कराता है. कहा गया है की गीता में जीवन के हर सवाल का जवाब है.

    महाभारत की बात करें तो इसका हर चरित्र और उनका जीवन हमें कुछ न कुछ सीख देते हैं. इस युद्ध को   मुख्यतः पांडव और कौरवों के नजरिये से देखा गया है, लेकिन इस पूरी महाभारत में का एक किरदार की हमेशा अनदेखी हुई है, वो है कर्ण.

    कर्ण को हमेशा ही दुर्योधन के समर्थक के रूप में देखा गया, लेकिन अगर इसे मित्रता के रूप में देखें तो हमेशा ही कर्ण सबसे आगे दिखाई देता है. कर्ण को जब सबने दुत्कार दिया, चाहे वो कर्ण की माँ कुंती हो या गुरु द्रोणाचार्य हों, तब दुर्योधन ने मित्रता निभाई. उस मित्रता का बदला कर्ण ने महाभारत  में दुर्योधन के पक्ष में युद्ध लड़कर और अपनी जान देकर निभाया.

    कर्ण का चरित्र अपने आप में वीरता की मिसाल है और हमें कई सीख देता है.

    महाभारत युद्ध में श्री कृष्ण और कर्ण के बीच हुए संवाद की बात करें तो यह भी जीवन का गूढ़ ज्ञान है और जीवन के कई सवालों का हल मिलता है.

    आइये देखें श्री कृष्ण और कर्ण के बीच हुए संवाद के मुख्य अंश:

    कर्ण:

    हे कृष्ण, जन्म लेते ही मेरी माँ ने मुझे छोड़ दिया, गरीब घर में होते हुए भी मैं शूरवीर पैदा हुआ तो इसमें मेरा क्या दोष है? गुरु द्रोणाचार्य ने पांडवों और कौरवों को शिक्षा दी लेकिन मुझे शिक्षा नहीं दी क्यूंकि मैं क्षत्रिय नहीं था.

    मैंने परशुराम से शिक्षा ली, लेकिन यह जानने के पश्चात् की मैं क्षत्रिय नहीं हूँ, मुझे सब शिक्षा भूल जाने का श्राप दिया.

    द्रौपदी के स्वयंवर में मेरा सिर्फ इसलिए अपमान हुआ क्यूंकि मैं क्षत्रिय नहीं था. मेरी माता ने भी सिर्फ अपने पांच पुत्रों की रक्षा करने के लिए यह सत्य बताया की मैं उनका पुत्र हूँ.

    जो कुछ आज मैं हूँ वो सब दुर्योधन की देन है. तो फिर मैं उसके पक्ष में युद्ध करके भी क्यों गलत हूँ.

    श्री कृष्ण का उत्तर:

    हे कुंती पुत्र कर्ण, हाँ तुम्हारे साथ बहुत बुरा हुआ. लेकिन मेरी कहानी तुमसे कुछ ज्यादा अलग नहीं है. मेरा जन्म कारागार में हुआ और जन्म के तुरंत बाद ही माँ बाप से बिछड़ गया. मेरी मृत्यु जन्म से पहले ही तय कर दी गयी.

    तुम कम से कम धनुष वाण और घोड़े और रथ के साथ खेलते हुए बड़े हुए, लेकिन मैं गाय, बछड़े, गोबर और झोपडी में बड़ा हुआ. चलना सीखने से पहले ही मुझ पर कई प्राणघातक हमले हुए. कभी पूतना तो कभी बकासुर…

    मैं सोलहवें साल में गुरु संदीपनी के पास शिक्षा लेने जा पाया. लेकिन हमेशा ही लोगों को यह लगता था की मैं उनके कष्ट हरने के लिए पैदा हुआ हूँ.  तुमने कम से कम अपने प्रेम को पा लिया और उस कन्या से विवाह किया जिसे तुम प्रेम करते थे. लेकिन मैं अपने प्रेम को विवाह में नहीं बदल पाया. और तो और  मुझे उन सब गोपियों से विवाह करना पड़ा जो मुझसे प्रेम करती थी या जिन्हें मैंने राक्षसों से मुक्त कराया.

    इतना सब कुछ होने के बावजूद तुम शूरवीर कहलाये जबकि मुझे भगोड़ा कहा गया.

    इस महाभारत के युद्ध में अगर दुर्योधन जीता तो तुम्हें इसका बड़ा श्रेय मिलेगा लेकिन अगर पांडव युद्ध जीते भी तो मुझे क्या मिलेगा. सिर्फ यही की इतने विनाश का कारण मैं हूँ.

    इसलिए हे कर्ण! हर किसी का जीवन हमेशा चुनौतियों भरा होता है. हर किसी के जीवन में कहीं न कहीं अन्याय होता है. न सिर्फ दुर्योधन बल्कि युधिष्ठिर के साथ भी अन्याय हुआ है. किन्तु सही क्या है ये तुम्हारे अंतर्मन को हमेशा पता होता है. इसलिए हे कर्ण अपने जीवन में हुए अन्याय की शिकायत करना बंद करो और खुद का विवेचन करो. तुम अगर सिर्फ जीवन में अपने साथ हुए अन्याय की वजह से अधर्म के रास्ते पर चलोगे तो यह सिर्फ तुम्हें विनाश की तरफ ले जाएगा.

    अधर्म का मार्ग केवल और केवल विनाश की तरफ जाता है.

  • क्या जानते हैं आप कानपुर का धार्मिक इतिहास

    क्या जानते हैं आप कानपुर का धार्मिक इतिहास

    वैदिक, पौराणिक और धार्मिक आस्था तथा ऐतिहासिकता को समेटे कानपूर आर्य सभ्यता का प्राचीन केंद्र रहा है. कानपूर जनपद का भू-भाग पुण्यतोया गंगा – यमुना के दोआब भाग में स्थित है. कानपूर के इस भू-भाग में पौराणिक काल के बहुत से ऋषि मुनियों का प्रवास और जन्म स्थान की मान्यता भी है. जनपद में गंगा का प्रवेश आकिन ग्राम से होता है. आकिन ग्राम में सप्त ऋषि प्रधान अंगिरा का आश्रम होने की मान्यता है. ब्रह्मा के मानस पुत्र अंगिरा तपस्या से अग्नि के सामान तेजवान थे. श्री कृष्ण ने पाशुपत योग की प्राप्ति महृषि अंगिरा से ही किया था. अंगिरा को चौथे द्वापर का व्यास भी कहा गया है. इसी तरह गंगा किनारे सैबसू ग्राम में कश्यप पुत्र विभाण्डक के पुत्र श्रृंगी का आश्रम है. श्रृंगी एक कर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे. अंगदेश में अकाल होने पर राजा रोमपाद को सुझाव दिया गया की ब्रह्मचारी श्रृंगी के अंगदेश आने पर अकाल समाप्त हो सकता है. रोमपाद ने प्रयास कर उन्हें बुलाया जिससे वर्षा हुई. राजा ने अपनी पालित पुत्री का विवाह श्रृंगी से कर दिया तथा श्रृंगी ने राजा दशरथ के पुत्र्येष्टि यज्ञ को पूरा कराया. गंगा के सुरम्य तट पर बिठूर में बाल्मीकि का आश्रम है. भगवान् राम की पत्नी सीता ने यहीं प्रवास किया था, लव कुश का जन्म भी यहीं हुआ था तथा रामायण महाकाव्य की रचना भी यहीं हुई थी.

    दैत्य राज बलि की राजधानी ‘मूसानगर’ में शुक्राचार्य का स्थान माना जाता है. भगवान वामन के तीन पग भूमि दान में बाधा बनने पर उनकी आँख जाती रही. यहां पर शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के नाम पर सरोवर भी विद्धमान है. देवयानी का विवाह ययाति के साथ हुआ, जिनकी राजधानी जाजमऊ में थी.

    सेंगुर नदी के तट पर निगोही ग्राम में तपस्वी और क्रोधमूर्ति दुर्वासा ऋषि का आश्रम है. उन्होंने भक्त अंबरीश को शाप तथा दुष्यन्तपत्नी शकुंतला को शाप दिया था. इसी तरह ग्राम “परसौरा” भगवान परशुराम और “चिंता निवादा” उनके पिता जमदग्नि ऋषि का आश्रम माना जाता है. भृगु पुत्र ऋचीक और गाधिपुत्री सत्यवती से जमदग्नि ऋषि का जन्म हुआ. भगवान् परशुराम को विष्णु का अवतार माना जाता है. “नार” ग्राम नारदाश्रम के नाम से प्रसिद्ध है. नारद पूर्व में दासी पुत्र थे.

    महाभारत कालीन द्रोणपुत्र चिरंजीवी अश्वत्थामा का जन्मस्थान शिवराजपुर के पास ककयपुर में खेरेश्वर में है. मान्यता है की सप्त चिरंजीवियों में से अश्वत्थामा आज भी खेरेश्वर महादेव का प्रातः अभिषेक करते हैं. भक्तराज ध्रुव की राजधानी बहिर्ष्मतीपूरी बिठूर में मानी जाती है. बालिपुत्र बाणासुर की राजधानी “बनीपारा” में है. वहां पर बना ऊषाबुर्ज आज भी उनकी पुत्री का स्मरण दिलाता है. ययाति से जाजमऊ और माता-पिता के भक्त श्रवण कुमार के नाम से “सरवन खेड़ा” प्रसिद्ध है. आज भी यह पौराणिक धार्मिक तीर्थ आध्यात्मिक पर्यटन की ओर लोगों को आकर्षित करते हैं. इनसभी तीर्थ स्थलों के विकास पर शासन को अवश्य ध्यान देना चाहिए.
    साभार: सचिन तिवारी